गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

मिड डे मील: रसोइये को निवाला नहीं

मिड डे मील सरकार की शिक्षा योजना का बड़ा हिस्सा है, जिसके द्वारा  जहां बच्चे को पोषण का लक्ष्य किया जाता है वहीं दूसरी ओर उन्हें स्कूल में बनाये रखने का भी ये एक बड़ा तरीका साबित हुआ है. लेकिन कभी गुणवत्ता तो कभी किन्हीं और कारणों से ये योजना अपवादों में बनी रही है. अभी हाल ही में दिल्ली जंतर-मंतर में धरने पर बैठी कई रसोइया जो बिहार के स्कूलों में भोजन बनाने का करती हैं से रूबरू होने और बात करने का मौक़ा मिला। क्या और क्यों? ये सच है की मिड डे मील एक महत्वाकांक्षी योजना है. लेकिन इन रसोइयों की हालत देख तो लग रहा था की ये सब ढकोसला मात्र है. मात्र एक हजार रूपया महीना पर काम करने वाली ये महिलाएं न्यूनतम निर्धारित मजदूरी भी नहीं प्राप्त कर पा रहीं है. इन महिलाओं से बात कर पता चला की कितनी बदतर हालातों के बीच ये इस योजना को सफलता पूर्वक पूरा करने के लिए अपना पूरा प्रयास कर रहीं हैं. ख़ास बात यह है की इन महिलाओं को मात्र १० माह का पैसा ही मिलता है. मानव संसाधन मंत्रालय की वेबसाइट को काफी रंगीन तो कर दिया गया है लेकिन इनकी सुनने वाला कोई नहीं है. आखिर कब तक बच्चों को खाना परोसने वालों को एक निवाले के लिए तरसना पडेगा। वैसे तो बिहार में स्वयंसेवी संस्थाओं का एक बड़ा समूह है जो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने और बदलने का दावा कर रहा है लेकिन इस पर उनकी खामोशी उनकी मंशा पर भी सवाल खड़ा करती है.

(इनसाईट स्टोरी)