मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

उत्तराखंड के चुनाव: असमंजस


जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें उत्तराखंड भी एक है, नये परिसीमन के तहत पहली बार विधान सभा चुनाव होंगें. इस बार के चुनाव कई मायनों में काफी दिलचस्प हो सकते हैं, वर्तमान में उत्तराखंड क्रांति दल और कुछ निर्दलियों के सहयोग से यहाँ भाजपा सत्ता सीन है लेकिन पिछले पाँच सालों में तीन तीन मुख्यमंत्रियों के हाथ में सत्ता देने के बाद भी भाजपा के लिए इन चुनावों की डगर आसान नहीं दिख रही है, दूसरी प्रमुख पार्टी कांग्रेस को देखें तो लगता है उसका बियावान भी उजड़ा ही है, अब ना तो कांग्रेस के पास नारायण दत्त तिवारी जैसा कोई चमत्कारी नेता है और ना ही लोकप्रियता. भाजपा और कांग्रेस दोनों ही भीतरघात की शिकार भी हैं. भाजपा जहाँ विकास के बजाय विनाश करने वाली पार्टी के रूप में यहाँ अपनी छवि बना पायी है, इसी बात को लेकर आम कार्यकर्ता काफी गुस्से में है. वैसे लोकपाल का बिल पास करवा मुख्यमंत्री खंडूरी कुछ आस लगा बैठे थे लेकिन नौकरशाहों के हाथ इस क़ानून की धज्जियां उड़ाने का पूरा इंतजाम किया जा चुका है, सरकार के इस फैसले से नौकरशाह खासे खफा दिख रहें हैं और इन चुनावों में कर्मचारी और अधिकारी वर्ग का गुस्सा सरकार को झेलना पड़ सकता है. कांग्रेस जहां एक और केंद्र में अब तक की सबसे अलोकप्रिय सरकार का दंश झेल रही है वहीं प्रदेश में नेतृत्व विहीनता के कारण एक निर्जीव दल के रूप में ही दिख रही है. अब एक नजर उत्तराखंड में इन चुनावों में भारी फेरबदल करने वाली बसपा की और, बसपा अपना ग्राफ जिस तेजी से बढ़ा रही है उसे देख लगता है की इन चुनावों के परिणामों के बाद सरकार के समीकरण बनाने और बिगाड़ने में बसपा मुख्य भूमिका में रहेगी.
अब बड़ा सवाल ये है चुनावों की इस वैतरणी में किसकी नैया पार लगेगी और किसकी डूब जायेगी? इस फैसले में अभी समय बाकी जब तक सभी दल अपने उम्मीदवार घोषित नहीं कर देते, कोई कयास लगना संभव नहीं है. एक मुद्दा जो इस बार काफी अहम हो सकता है वो क्षेत्रवाद का होगा, भाजपा के द्वारा गढ़वाल के विकास पर ज्यादा ध्यान दिया जाना, कुमाऊं की जनता को नागवार गुजर रहा है, भले ही कोई खुल कर इसके लिए सामने ना भी आये तो अन्दरखाने लामबंदी चल रही है. इससे पहले उत्तराखंड में ये देखने में नहीं आता था लेकिन इस बार सरकार की तुष्टिकरण की नीतियों के गलत संयोजन से ये स्थिति पैदा हुयी है. इसके अलावा पिछड़े वर्ग के वोटों का खुला ध्रुवीकरण बसपा की ओर दिख रहा है. उत्तराखंड क्रांतिदल जैसे छोटे दलों को इस बार हाशिये में ही रहना पड़ सकता है.
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(इनसाईट स्टोरी टीम उत्तराखंड)

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