हैदराबाद में हुए हालिया धमाकों ने आतंकवाद और उसके रूपों पर एक नई बहस छेड़ दी है. इन धमाकों के पीछे मास्टर माइंड कौन है? या ये धमाके किस मानसिकता का परिणाम हैं इन मुद्दों पर तो खूब धमाल किया जाता है. धर्म, मजहब और सम्प्रदाय से जोड़ने के साथ पुलिस और सरकारों को भी खूब कोसा जाता है. लेकिन हम ये भूल जाते हैं की इन अलगावादियों को पनाह और पोषण देने वाला समाज हमारा ही है. देश में कहीं भी आतंकवादी घटनाएँ होती हैं तो समाज के एक तबके का इन घटनाओं को संरक्षण होता ही है. अपने तुच्छ फायदों के लिए आंतकियों को पनाह देने वालों की फेहरिस्त कम नहीं है. एक दूसरा सवाल आतंकियों के धर्म को लेकर उठाया जाता है, शायद ही कोई धर्म यूं कटने काटने की बात करता हो. लेकिन कुछ अलगाववादी अपने फायदे और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं. चाहे वो ओवैसी हो या फिर तोगडिया. ये बिना वजूद के लोग सिर्फ लोगों को भड़का कर दंगे और आंतक भडकाना जानते हैं. अफजल को फांसी पर देश में कई संगठन बौखला गये थे लेकिन आज जब हैदराबाद जल रहा है तो कहाँ वो लोग. अफजल जैसे आंतकी के मानवाधिकार आपको दिखते हैं लेकिन धमाकों में मरने वालों के अधिकारों से आप त्क्क्लुफ़ तक नहीं रखते दिखते हैं. हिन्दू या मुसलमान आतंकी ये आंतक की परिभाषा नहीं है. क्या पाकिस्तान में आतंकवादी घटनाएँ कम होती हैं? क्या पकिस्तान या कहीं और मुसलमान आतंकवाद से नहीं मर रहा है? शायद मुसलमान पाकिस्तान या अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा असुरक्षित है. लेकिन ये भी सच है की ज्यादातर आतंकी मुसलमान के नाम से ही आतें हैं. ऐसा क्यूं है? इसके कारण जब तक धर्म की धुरी पर ढूंढें जायेंगें तब तक उत्तर नहीं मिलेगा. सच तो यह है की दुनिया की महाशक्तियां इस समस्या का हल नहीं चाहती हैं. ये आतंकवाद, दुनिया ने अपनी सरकारों की नाकामी को छुपाने का हथियार बना रखा है. आंतक के खौफ में दुनिया के कई देश हथियारों के सौदागर बने हैं और सारी दुनिया में दादागिरी दिखा रहें हैं. अफजल को फांसी पर इन देशों के मानवाधिकारी चीत्कार करते हैं लेकिन सारी दुनिया में अमेरिका की तानाशाही इन्हें नहीं दिखती है. हमारे देश आतंक का जो चेहरा अब दिख रहा है भले ही वो पाकिस्तान से आयातित मान भी लिया जाय तो उसका गोदाम तो देश में ही है और यहाँ जनता के समर्थन से ही फल फूल रहा है. यही जनता जब कुछ घट जाए तो सड़कों पर आती है लेकिन इन्हें पनाह भी देती है. ऐसा दोहरा आचरण क्यों?
(आशुतोष पाण्डेय)
(आशुतोष पाण्डेय)
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