इस समय दिल्ली में सबसे ज्यादा बैचेन कोई है तो वो हैं कांग्रेसी नेता, जिनके कई मामले ऐसे हैं जिनकी जांच केजरीवाल करा सकते हैं. इसमें कामनवेल्थ घोटाला, शीला सरकार के मंत्रियों के द्वारा पद के दुरूपयोग का मामला और विधायक निधि के साथ कई योजनाओं की जांच की जा सकती है. इसी कारण कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा कांग्रेस के आप को समर्थन का विरोध कर रहा लेकिन कांग्रेस पर इस समय डैमेज कंट्रोल का दवाब ज्यादा है, इस लिए कुछ नेताओं की बलि भी कांग्रेस देने को तैयार है. 2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान निर्माण कार्यों में की गई भारी गड़बड़ी की खबरें देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बनी थी. सुरेश कलमाड़ी तो इस मामले में जेल भी जा चुके हैं. आम आदमी पार्टी इस घोटाले को जोर-शोर से उठाती रही है. अगर आम आदमी पार्टी की सरकार कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले की जांच शुरू करवाती है, तो शीला सरकार के कई मंत्री इसके फंदे में आ सकते हैं. इसके अलावा कई अन्य फाइलें भी खोली जा सकती हैं, कांग्रेस ही नहीं बीजेपी के विधायकों की भी जांच करवाई जा सकती है. इसकी ओर केजरीवाल एक 2 मिनट का विडियो जारी कर इशारा भी कर चुके हैं. इन मामलों में कई मामले तो केंद्र सरकार से भी जुड़े हैं और अगर कोई जांच करवाई जाती है और करवाई ही जायेगी तो गाज केंद्र सरकार पर भी गिर सकती है और कुछ मामलों में तो पीएमओ सीधे लपेटे में आ सकता है. लोकसभा चुनाव से पहले यदि कोई नया मामला खुलता है और उसमें कोई कांग्रेसी नेता लपेटे में आता है तो कांग्रेस के लिए जवाबदेही मुश्किल हो सकती है. यही बैचेनी कांग्रेस को खाए जा रही है जिस तरीके से दिल्ली के कांग्रेस नेताओं को बलि का बकरा बनाया जा रहा है उनमें गुस्सा जायज है और इसका परिणाम भी जल्द सामने आ सकता है. बस केजरीवाल अपनी टीम को अनुशासित रख लें जो काम कल बिन्नी ने किया उसकी पुनरावृति ना हो तो शायद केजरीवाल स्वराज के पहले अध्याय को सच कर सकें.
कौन बनता है खबर? कौन होता ख़बरों के केंद्र में? क्या बिकती हैं खबरें? घोटाले बनाए भी जातें हैं? ख़बरों का सच, ख़बरों का झूठ, इनसाईट स्टोरी के आईने में. आप बताएं कहाँ क्या हो रहा है? कैरियर, स्वास्थ्य, विज्ञान, फिल्म ....... और बहुत कुछ आपके लिए.
बुधवार, 25 दिसंबर 2013
केजरीवाल का लोकपाल : केजरीवाल कहीं ना हो जायें फेल
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मैं क्या करूं ये कानून ही ऐसा था, कांग्रेस ने छिपा कर रखा था. |
A.K-47 के जनक ने ली दुनिया से विदा
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मिखाइल कलाशनिकोफ़ |
क्या होगा केजरीवाल का: शपथ लेगें या फिर कोई नया ड्रामा
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अरविन्दर सिंह लवली |
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और ख़ास
आप की हंडिया फोड़ दी बिन्नी ने:आप में बगावत
मंगलवार, 24 दिसंबर 2013
आप की हंडिया फोड़ दी बिन्नी ने:आप में बगावत

102 साल के अमिताभ बच्चन
जी हाँ आप जल्द ही 102 साल के अमिताभ से रूबरू होंगें... लेकिन 71 साल के अमिताभ अब 102 के कैसे हो गये? अजी ये अमिताभ हैं बच्चे से लेकर बूढ़े तक हर रोल को क्या बखूबी निभाते हैं और इस बार 102 साल के एक वृद्ध का किरदार अदा कर रहें है फिल्म "102 नॉट आउट" में. उनके 75 साल के बेटे की भूमिका में मिलेंगें परेश रावल. फिल्म का निर्देशन ओ एम जी के निर्देशक उमेश शुक्ला कर रहें हैं.
नितीश की हत्या मोदी के हाथ?
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गिरिराज सिंह |

सोमवार, 23 दिसंबर 2013
आप के साथ दिल्ली की जनता भी ईमानदार हो जायेगी
आप रिश्वत ना भी मांगें तो भी ऑफर की जाती है, यदि रिश्वत लेकर कोई काम करने से मना कर दे तो उसके खिलाफ जनता की भृकुटी भी तन जाती है, कई ईमानदार अधिकारियों को रोज इन समस्याओं से दो चार होना ही पड़ता है, पोस्टिंग के लिए रिश्वत, तबादले के लिए रिश्वत और तो और 100 रूपये के बिल को पास कराने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है. "लोग खुद आकर रिश्वत ऑफर करते हैं, ले लो तो ठीक भगा दो तो आन्दोलन. अब बताएं क्या ठीक है"? दिल्ली सरकार के एक अफसर ने ये बात काफी खेद के साथ कही जब उनसे पूछा गया की आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद भ्रष्टाचार पर कितनी रोक लगेगी, उनका कहना था एक सरकारी स्कूल में जहां मुफ्त शिक्षा मिलती है हम में से कितने लोग वहां बच्चों को भेज रहे हैं, भारी डोनेशन लेने वाले स्कूल अच्छे माने जाते हैं, क्योंकि ज्यादा बड़ा डोनेशन स्टेट्स सिम्बल बन गया है. जिस स्कूल में बिना डोनेशन एडमिशन मिल जाए उसमें कौन अपने बच्चे भेजना पसंद करता है, उसे तो दोयम दर्जे का स्कूल कहा जाता है. क्या आप लोगों को इस मानसिकता से बाहर निकाल लेंगें? घर बैठे काम कराने की परिपाटी ने ही दलाल संस्कृति को जन्म दिया है. यदि नियमानुसार ड्राइविंग लाइसेंस बनने लगें तो दिल्ली में आधे लोग ही लाइसेंस प्राप्त कर पायें. आप खुद देखिये कितने लोग ऐसे हैं जो समाचार पत्रों का प्रकाशन सही नियमों के अनुसार कर रहें है. देश में बी पी एल की लिस्ट उठा लो कितने ऐसे लोग हैं जो करोड़पति हैं और बीपीएल की सुविधा ले रहें हैं. सब झूठ में चल रहा है उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करना भी एक अपराध है. तमाम दवाब ग्रुप हल्ला शुरू कर देते हैं. वास्तव में इन महानुभाव की ये बात काबिलेगौर है. जिस देश में बहुतायत लोग रेडलाईट को तोड़ चालान कटवाने के बजाय ले दे कर या धौंसबाजी से बचने का रास्ता निकालते हैं. सरकार रहने को मकान दे दे तो सामने की सड़क को अपने बाप की जायजाद मानते हैं, उनसे क्या ईमानदारी की उम्मीद की जा सकती है. अब देखना है "आप" का भ्रष्टाचार विरोध इन्हें कितना सुधार सकता है या फिर आप भी इन्हीं के रंग में रंग जाती है. देखते रहिये ये देश है जिसके कई रंग हैं कई रूप.
रविवार, 22 दिसंबर 2013
आप और साँप की सरकार
आप के साथ सांप की सरकार: फोटो सौजन्य इनसाईट स्टोरी |
अभी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार नहीं बनी है लेकिन भाजपा के बड़े नेताओं ने उन पर तंज कसने आरम्भ कर दिए हैं, जन्तर मंतर में भाजपा के द्वारा प्रायोजित एक अनशन के मौके पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विजय गोयल ने आप और कांग्रेस के गठबंधन पर कहा देखिये आप और सांप की सरकार, उन्होंने कहा कि एक ओर आप के नेता कांग्रेस को दो मुँहा साप कहते हैं लेकिन उन्हीं के साथ सरकार बना रहें हैं. आम आदमी पार्टी की सफलता का असर विजय गोयल के तेवरों पर काफी दिखा इस बार उनका वार सीधा आप पर था.
पढ़िए: क्या मैं सरकार बना लूं?
इसी मंच से भाजपा के मुख्यमंत्री प्रत्याशी हर्षवर्धन भी आप को चुनौती देते दिखे कि जनता से किये वादे तो पूरे कर दिखाओ. इससे पहले कांग्रेस के नवनिर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष अरविन्दर सिंह लवली भी आप के वादों पर यही कह चुके हैं. इस पर आप समर्थकों का कहना है की अगले 6 माह में दिल्ली से भाजपा और कांग्रेस का पत्ता साफ़ हो जाएगा. वैसे उनकी ये टिप्पणी उनके अति उत्साह का प्रतीक लगे लेकिन दिल्ली में मोदी की कई रैलियों के बाद भी भाजपा बहुमत नहीं जुटा पाई, इस सच से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है और इसके चलते ही कांग्रेस को दिल्ली में एतिहासिक हार का सामना करना पड़ा. जिस गति से आप ने अपना जनाधार अर्जित किया है अगर इस गति से ही आगे गई तो आगामी लोकसभा चुनावों में भी एक चुनौती कांग्रेस और भाजपा समेत सभी दलों के लिए पैदा कर सकती है. विशेषकर बड़े शहरों में आप अपने झंडे गाड़ सकती है. दिल्ली और आस-पास के इलाकों में भी आप एक बड़े विकल्प के रूप में खडी दिख रही है.
(आशुतोष पाण्डेय)पढ़िए: क्या मैं सरकार बना लूं?
इसी मंच से भाजपा के मुख्यमंत्री प्रत्याशी हर्षवर्धन भी आप को चुनौती देते दिखे कि जनता से किये वादे तो पूरे कर दिखाओ. इससे पहले कांग्रेस के नवनिर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष अरविन्दर सिंह लवली भी आप के वादों पर यही कह चुके हैं. इस पर आप समर्थकों का कहना है की अगले 6 माह में दिल्ली से भाजपा और कांग्रेस का पत्ता साफ़ हो जाएगा. वैसे उनकी ये टिप्पणी उनके अति उत्साह का प्रतीक लगे लेकिन दिल्ली में मोदी की कई रैलियों के बाद भी भाजपा बहुमत नहीं जुटा पाई, इस सच से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है और इसके चलते ही कांग्रेस को दिल्ली में एतिहासिक हार का सामना करना पड़ा. जिस गति से आप ने अपना जनाधार अर्जित किया है अगर इस गति से ही आगे गई तो आगामी लोकसभा चुनावों में भी एक चुनौती कांग्रेस और भाजपा समेत सभी दलों के लिए पैदा कर सकती है. विशेषकर बड़े शहरों में आप अपने झंडे गाड़ सकती है. दिल्ली और आस-पास के इलाकों में भी आप एक बड़े विकल्प के रूप में खडी दिख रही है.
शनिवार, 21 दिसंबर 2013
क्या मैं सरकार बना लूं?
मंगलवार, 3 दिसंबर 2013
मोदी के चोचलें नहीं चल रहें है दिल्ली में
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दिल्ली विधान सभा चुनाव 70 सीटों पर होने हैं. इन 70 सीटों पर इस बार रोचक मुकाबला होना है. लगभग 1.15 करोड़ मतदाताओं के साथ शीला, हर्षवर्धन और केजरीवाल का भविष्य दांव पर लगा है. इस बार भाजपा मोदी कार्ड खेल रही है और इसी कार्ड के साथ चुनावों में है और कांग्रेस के पास इस बार मुद्दों के नाम पर कुछ भी नहीं है उनके खिलाफ सिर्फ सवाल ही खड़े दिख रहें हैं. विकास और रफ्तार के तमाम दावों के साथ भी कांग्रेस भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दों पर घिरी दिख रही थी, लेकिन मोदी के जासूसी प्रकरण और आम आदमी पार्टी के खिलाफ सरकार मीडिया डाट काम के स्टिंग के बाद कांग्रेस की पतली हालत में थोड़ा सुधार हुआ है. 2008 में मिली 43 सीटों के मुकाबले इस बार कितनी सीटें मिलेंगी कहा नहीं जा सकता है. मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपनी चौथी पारी को लेकर खुद विश्वास नहीं कर पा रहीं हैं. लेकिन भाजपा भी इस बार विजय गोयल को दांव पर तो लगा चुकी है लेकिन हर्षवर्धन के साथ खेला उसका दांव कोई खास कमाल कर सके ये लगता नहीं हैं. "आप" के अरविन्द केजरीवाल भी मुख्यमंत्री की दौड़ में बेतहाशा भाग रहें हैं. केजरीवाल ने राजनिती के मैदान में गजब फील्डिंग सजाई है. अब देखना ये है क्या रन आउट कर कुर्सी कैच कर पाते हैं या नहीं? खुद नयी दिल्ली सीट से शीला दीक्षित के लिए चुनौती पैदा करने वाले भाजपा के विजेंद्र गुप्ता के भी सिरदर्द बन गये हैं, लेकिन इस सीट पर उनके लिए जीतना आसान नहीं है. अभी आप और केजरीवाल को काफी कुछ सीखना बाकी है, सिर्फ आदर्शों की हंडिया से दाल नहीं गलती है. आप जो एक समय एक निर्णायक दौर में था और करीब 20 सीटों में प्रभावित करने की स्थिति में था चुनाव आने तक वे एक से दो सीटों पर सिमटा दिख रहा हैं. मोदी के चोचलें यहाँ पर नहीं चल रहे हैं और विजय जौली के ड्रामा के बाद तो भाजपा की भत पीट रही है. पिछले चुनावों में 23 सीटों पर अटकी भाजपा इस बार 7-8 सीटों पर फायदा उठा सकता है. भाजपा इस बार अगर 30 का आकड़ा छू ले तो भी कांग्रेस कम से कम 30 सीटें लेने की स्थिति में दिख रही है. दो सीटों पर बसपा और एक पर लोकदल को जीत मिलती है तो भी 36 का जादुई आकड़ा जुटा लेना भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए काफी कठिन लगता है. 2 से 3 सीटें भी अगर आप को मिलती है तो भी वे किंग मेकर की भूमिका में दिखेंगे. अभी तक तो आप किसी भी पार्टी का समर्थन ना करने की बात कर रही है लेकिन खुद शीला दीक्षित गाहे-बगाहे आप के साथ के साथ गठजोड़ की संभावना व्यक्त कर चुकी हैं और दूसरी ओर आप समर्थक प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी को ज्यादा लोकप्रिय उम्मीदवार मान रहें हैं इसका सीधा अर्थ ये है की आने वाले कल में केजरीवाल समर्थकों की दुहाई दे भाजपा का पल्ला थाम सकते हैं. इसमें अन्ना और रामदेव काफी अहम रोल निभा सकते हैं. 4 दिसम्बर को दिल्ली के भविष्य की इबारत ईवीएम में कैद हो जायेगी लेकिन परिमाणों के लिए 9 दिसम्बर का इन्तजार करना ही पड़ेगा.
(आशुतोष पाण्डेय)

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013
दिल्ली विधान सभा चुनाव: फेल का खेल
दिल्ली विधान सभा चुनावों की उल्टी गिनती के साथ राजनीतिक उठापटक जोर पकड़ने लगी है. समीकरण उलझते ही जा रहें हैं. कांग्रेस और भाजपा की इस लड़ाई में इस बार आम आदमी पार्टी का भी एक पेंच है. कांग्रेस की शीला सरकार का विकास कार्ड, केंद्र की नाकामी और अर्थव्यवस्था का वर्तमान स्तर ये सब मिला कर ही दिल्ली में कांग्रेस का भविष्य तय होगा. पिछले 15 सालों में शीला का सियासी समीकरण हर वक्त फिट बैठा है और अंतर्कलह को भी दबाने में वह सफल रहीं हैं. 15 सालों के शासन में उनके दिल्ली को प्रोगेसिव बनाने की कोशिश को नकारा भी नहीं जा सकता, लेकिन सियासत यूं नहीं चलती है. इसके कई रूप और रंग होते हैं और कई मूड भी. अब बात भाजपा की आज दिल्ली में भाजपा अपनों के बीच की लड़ाई में है, विजय गोयल भाजपा को एक साथ लेकर चल पड़ें ये लगता नहीं है. दिल्ली भाजपा का एक बड़ा धड़ा तो मोदी के खिलाफ तक खड़ा दिखता है. कांग्रेस से ज्यादा अंदरूनी उठापटक भाजपा में है, अभी तक भाजपा ये तक नहीं बता पायी की उनका मुख्यमंत्री कौन होगा? किसकी अगुवाई में दिल्ली भाजपा मैदान में होगी ये भी जनता को मालूम नहीं है जबकि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के पास घोषित मुख्यमंत्री के उम्मीदवार हैं. भाजपा ने मंदिर मुद्दा उठा कर अपने लिए सिरदर्द पैदा कर लिया क्योंकि भाजपा के वोट का एक बड़ा वर्ग उनकी इस नौटंकी से नाराज है और टूट रहा है.
अब कुछ बातें कहाँ कमजोर दिखती है कांग्रेस:-
१. केंद्र में सरकार की नाकामी दिल्ली में कांग्रेस को काफी भारी पड़ सकती है.
२. ताबड़तोड़ महंगाई और भ्रष्टाचार कांग्रेसी चूलें हिलाने के लिए काफी है.
३. शीला सरकार की मीडिया मुग़ल के प्रति सदाशयता भी उन्हें भारी पड़ने वाली है जहां बड़े समाचार पत्रों और चैनलों के प्रति उन्होंने सदाशयता बरती है लेकिन छोटे और मझोले समाचारपत्रों के पर कतर भी अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है. क्योंकि ये छोटे समाचार पत्र राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की कुव्वत ना भी रखें तो क्षेत्रीय समीकरणों को प्रभावित करने की कुव्वत जरूर रखते हैं और इस बार ये कमर कस कर शीला सरकार को कई मुद्दों पर घेर सकते हैं.
४. युवा और छात्रों का एक बड़ा वर्ग जो अभी वोटर बना है के बीच कांग्रेसी काम्बिंग कहीं नहीं दिख रही है NSUI दिल्ली विश्विद्यालय के चुनावों के लिए तो वोट मांग रहा है लेकिन दिल्ली की कांग्रेस की उपलब्धियों और नीतियों को आगे नहीं ला पा रहा है. इसके विपरीत भाजपा के आई टी सेल की कसरत का परिणाम है की युवाओं में मोदी का जादू चढ़ रहा है. केजरीवाल टीम भी इस लड़ाई में कांग्रेस और भाजपा से दिल्ली में आगे दिख रही है और ये दोनों पार्टियों पर भारी पड़ने वाला है.
पिछले दो दिनों में खुद शीला दीक्षित 10 सीटिंग विधायकों को उनकी हालात पतली होने की चेतावनी दे चुकी हैं. अब देखना में दिल्ली के इस रण में सेनापतियों की जंग में कौन जीतेगा. वैसे ये खेल जीत से ज्यादा "फेल का खेल" है.
अब कुछ बातें कहाँ कमजोर दिखती है कांग्रेस:-
१. केंद्र में सरकार की नाकामी दिल्ली में कांग्रेस को काफी भारी पड़ सकती है.
२. ताबड़तोड़ महंगाई और भ्रष्टाचार कांग्रेसी चूलें हिलाने के लिए काफी है.
३. शीला सरकार की मीडिया मुग़ल के प्रति सदाशयता भी उन्हें भारी पड़ने वाली है जहां बड़े समाचार पत्रों और चैनलों के प्रति उन्होंने सदाशयता बरती है लेकिन छोटे और मझोले समाचारपत्रों के पर कतर भी अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है. क्योंकि ये छोटे समाचार पत्र राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की कुव्वत ना भी रखें तो क्षेत्रीय समीकरणों को प्रभावित करने की कुव्वत जरूर रखते हैं और इस बार ये कमर कस कर शीला सरकार को कई मुद्दों पर घेर सकते हैं.
४. युवा और छात्रों का एक बड़ा वर्ग जो अभी वोटर बना है के बीच कांग्रेसी काम्बिंग कहीं नहीं दिख रही है NSUI दिल्ली विश्विद्यालय के चुनावों के लिए तो वोट मांग रहा है लेकिन दिल्ली की कांग्रेस की उपलब्धियों और नीतियों को आगे नहीं ला पा रहा है. इसके विपरीत भाजपा के आई टी सेल की कसरत का परिणाम है की युवाओं में मोदी का जादू चढ़ रहा है. केजरीवाल टीम भी इस लड़ाई में कांग्रेस और भाजपा से दिल्ली में आगे दिख रही है और ये दोनों पार्टियों पर भारी पड़ने वाला है.
पिछले दो दिनों में खुद शीला दीक्षित 10 सीटिंग विधायकों को उनकी हालात पतली होने की चेतावनी दे चुकी हैं. अब देखना में दिल्ली के इस रण में सेनापतियों की जंग में कौन जीतेगा. वैसे ये खेल जीत से ज्यादा "फेल का खेल" है.
रविवार, 16 जून 2013
ये मोदी-मोदी चिल्लायेंगे गठबंधन तोड़ के
तमाम उठापठकों के बाद जदयू और भाजपा का गठबंधन टूट ही गया और इस प्रकार एनडीए गठबंधन महत्वहीन ही हो गया. मोदी के नाम को आगे कर देने के बाद से ही देश की राजनीति में कई नये समीकरण दिखने लगें हैं. पहले आडवानी की नाराजगी फिर नीतीश कुमार का 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ने का फैसला. ममता बनर्जी का तीसरे मोर्चे की तैयारी करना. इन सब के बीच भारतीय राजनीति किसी बड़े उलटफेर का इन्तजार कर रही है. पहले बात मोदी को लेकर हो जाये, मोदी को बीजेपी के धड़े द्वारा विशेष हवा दी जा रही है. पिछले कुछ सालों में बीजेपी के सभी चुनावी मुद्दे पिट चुके हैं उसकी हिंदुत्व की छवि तार-तार हुयी है. ऐसे में भाजपा के पास मोदी ही तुरूप का ऐसा पत्ता है जिस पर दाँव खेला जा सकता है और भाजपा इसी दाँव को लगा भी रही है लेकिन एक राजनैतिक समीक्षक की हैसियत से देखें तो गुजरात के बाहर मोदी का जादू नहीं चल रहा है. लगभग सात दशकों के लोकतांत्रिक इतिहास में देश की सत्ता किसी कट्टरपंथी को नहीं सौपीं गयी है. यही कारण भी है की देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था फली-फूली है. मोदी को गुजरात के परिपेक्ष्य में देखें तो एक विकास पुरूष से ज्यादा उनकी छवि कट्टरपंथी के रूप में दिखी है.
अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने से लेकर जनता के बीच में इस सन्देश को पहुचाने में भी मोदी सफल रहें हैं की मोदी गुजरात की जरूरत हैं अगर मोदी नहीं रहेंगे तो गुजरात में हिन्दू बेमौत मारा जाएगा. लेकिन अपने सियासी फायदे के लिए बजरंगी और कोदनानी को फांसी की सिफारिश करने से भी मोदी को गुरेज नहीं दिखता है, भाड़ में जाए हिन्दू वाली तर्ज में हिन्दू नेताओं को फांसी की मांग करने वाले मोदी को कुछ लोग हिन्दू धर्म के लिए मसीहा के रूप में स्थापित करने की कोशिश में हैं. आडवानी को जिस तरह मोदी ने चित्त किया उससे ये सन्देश ही गया की जो मोदी पूजा नहीं करेगा उसे या तो चुप कर दिया जाएगा या फिर ठिकाने लगाने से भी गुरेज नहीं किया जाएगा. भाजपा मोदी को लेकर जितनी उत्साहित दिख रही है, उसका कोई कारण नहीं दिखता है. कुछ लोगों के सोचने से कोई प्रधानमंत्री नहीं बन जाता है और भाजपा के समर्थक तो मोदी को प्रधानमंत्री बना चुके हैं उन्हें इतना सब्र नहीं की चुनावों का इन्तजार करें. वैसे भाजपा और उसके समर्थक कब किस के तारों को आसमान से जमीनों-जद कर दें कहना मुश्किल हैं. ये वह ही लोग हैं जो कभी आधी रोटी खायेंगें मंदिर वहीं बनायेंगें का नारा देते थे लेकिन सत्ता के बाद एक बार उस और झांका तक नहीं हाँ अटल जी ने पाकिस्तानी पार्टी खूब उडाई और पाकिस्तान ने कारगिल से मार की. अब देखना ये है की मोदी कब तक प्रधानमंत्री बने रहते हैं, चुनाव के बाद तो जनता का फैसला ही मानना पडेगा तब तक मोदी हमारे प्रधानमंत्री.

हुस्न के जाल में दिल्ली! खरीददार महिलाएं
शुक्रवार, 14 जून 2013
मानव डीएनए का पेटेंट नहीं हो सकता
चिकित्सकीय शोध और जीव विज्ञान तकनीक के लिए कोर्ट के इस फ़ैसले के दूरगामी परिणाम होंगे. अमरीकी जैव वैज्ञानिक समुदाय ने इसका विरोध करते हुए कहा है कि ऐसे पेटेंट पर बंदिशें लगाने से जीन से जुड़े शोध पर नकारात्मक असर पड़ेगा. मामला मुख्य रूप से स्तन और गर्भाशय कैंसर का पता लगाने संबंधी शोध से जुड़ा था.मिरियड जेनेटिक्स एक ऐसे टेस्ट पर काम कर रही थी जिससे कैंसर को जन्म देने के लिए जिम्मेदार जीन में तब्दीली की संभावना को तलाशा जा सके. अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन का तर्क था कि डीएनए प्रकृति की रचना है इसलिए इसका पेटेंट नहीं हो सकता लेकिन कंपनी का कहना था कि जिस जीन पर सवाल उठाए जा रहे हैं उसे कंपनी ने शरीर से बाहर निकाल कर शोध किया है इसलिए उसका पेटेंट हो सकता है.
2010 में एक न्यूयॉर्क फ़ेडरल कोर्ट ने यूनियन का पक्ष लिया लेकिन अपीलीय न्यायालय ने मिरियड जेनेटिक्स की बात स्वीकार करते हुए कहा कि मानव शरीर से निकाले गए डीएनए का रासायनिक स्वरूप बिल्कुल भिन्न होता है. सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को नहीं माना. न्यायाधीश जस्टिस टॉमस ने फ़ैसले में लिखा कि सिर्फ़ इस आधार पर कि 'जीन को शरीर से बाहर निकाल लिया गया है उससे मिलने वाली जानकारी को पेटेंट योग्य नहीं माना जा सकता'. इस कथन के समर्थन में ही न्यायाधीश जस्टिस एन्टोनिन स्केलिया ने लिखा कि डीएनए का एक हिस्सा अगर बाहर निकाल भी लिया जाए तब भी वह अपने स्वरूप में उस प्राकृतिक डीएनए का ही हिस्सा है. अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन की वक़ील सैन्ड्रा पार्क इस फ़ैसले का स्वागत करते हुए कहती हैं कि अब वैज्ञानिकों के लिए इन जीन पर शोध करना ज़्यादा आसान होगा क्योंकि किसी तरह की बौद्धिक संपत्ति के उल्लंघन का कोई डर नहीं रहेगा .अमरीका के सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मेडिकल कंपनियां मनुष्य के प्राकृतिक डीएनए का पेटेंट नहीं करा सकतीं लेकिन प्रयोगशाला में तैयार किया गया डीएनए पेटेंट योग्य माना जाएगा. कोर्ट का कहना है कि डीएनए प्रकृति की देन है और सिर्फ़ इस आधार पर उसका पेटेंट नहीं किया जा सकता कि किसी शोध के लिए वह शरीर से अलग किया गया है. कोर्ट ने मिरियड जेनेटिक्स नाम की एक अमरीकी कंपनी द्वारा स्तन और गर्भाशय कैंसर का पता लगाने संबंधी शोध में इस्तेमाल हुए जीन के पेटेंट को अवैध क़रार दिया है. चिकित्सकीय शोध और जीव विज्ञान तकनीक के लिए कोर्ट के इस फ़ैसले के दूरगामी परिणाम होंगे. अमरीकी जैव वैज्ञानिक समुदाय ने इसका विरोध करते हुए कहा है कि ऐसे पेटेंट पर बंदिशें लगाने से जीन से जुड़े शोध पर नकारात्मक असर पड़ेगा. कोर्ट का ये फ़ैसला मिरियड जेनेटिक्स और अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन के बीच चले एक मुक़दमे का नतीजा है. इस संगठन ने 2009 में एक मुक़दमा दायर कर ये सवाल उठाया था कि क्या मेडिकल कंपनियों को मानव जीन का पेटेंट करने की इजाज़त होनी चाहिए.
गुरुवार, 18 अप्रैल 2013
भारतीय सद्दाम साबित ना हों मोदी
ये कुर्सी भी कितनी अजीब चीज है कि इंसान की नीयत और सिद्धांतों दोनों की ऐसी-तैसी कर देती है. २००२ गुजरात दंगों के बाद मोदी ने जिन आरोपियों को मंत्री तक बनाया था आज वह उन्हीं के लिए फांसी की मांग कर रहें हैं. माया कोडनानी और बजरंगी के साथ अन्य हिन्दू नेताओं को जब २००२ के दंगों के लिए आबद्ध किया गया था तो मोदी ने उन्हें निर्दोष बताया था. जबकि एक आईपीएस संजीव भट्ट ने इन दंगों के लिए मोदी और गुजरात सरकार पर अंगुली उठाई थी तो उनका क्या हस्र हुआ सबको याद होगा. लेकिन आज खुद मोदी सरकार इन दंगों के लिए इन लोगों को दोषी मान इनकी उम्र कैद को फांसी में बदलने की मांग कर रही है. अगर ये लोग और विशेष माया कोडनानी दोषी हैं तो मोदी क्यों नहीं. इससे पहले भी मोदी अपने खिलाफ खड़ें होने वालों को ठिकाने लगा चुके है. मोदी समर्थक चीख-चीख कर मोदी के इस एजेंडे को प्रचारित कर रहे थे कि ये दंगें मुसलमानों ने करवाए हैं और मोदी ने हिन्दूओं को एक सुरक्षित गुजरात दिया है. इन समर्थकों ने मोदी को अगला प्रधानमंत्री तक घोषित कर दिया था. ये समर्थक किसी की सुनने को तैयार नहीं थे. मोदी को शेर कहा जा रहा था.
अब मोदी का असल चेहरा सामने आ चुका है. मोदी के कोई भी दावे सच तो क्या सच के आस-पास भी नहीं हैं इसाई मिशनरीयों के द्वारा खुल कर धर्म-परिवर्तन किये जा रहें हैं. साम्प्रदायिकता का डर दिखा लोगों को गुमराह किया जा रहा है. दिल्ली में महिलाओं को लेकर बड़ी सोच बघारने वाले मोदी के सामने जब महिला आरक्षण का प्रस्ताव एक महिला राज्यपाल द्वारा रखा गया था तब उन्होंने उसे पास करवाने के लिए प्रयास क्यों नहीं किये? बकायदा मोदी ने तो उस पर गौर तक नहीं किया. दरअसल मोदी का एकमात्र एजेंडा है प्रधानमंत्री का पद और उसके मिल जाने के बाद देश में तानाशाह बन राज्य करना जो बोले उसकी हत्या. उनके सभी समर्थकों को माया की तरह फांसी दे दी जायेगी. जो बोलेगा उसकी हत्या कर दी जायेगी. इतना खौफ की सत्ता सुख बार-बार जनता ही देगी जैसे सद्दाम को देती थी. जो सद्दाम ने किया उसी राह पर मोदी भी हैं, बस फर्क इतना है कि वह भारत में हैं? भारत को इराक ना बनने दें.
अब मोदी का असल चेहरा सामने आ चुका है. मोदी के कोई भी दावे सच तो क्या सच के आस-पास भी नहीं हैं इसाई मिशनरीयों के द्वारा खुल कर धर्म-परिवर्तन किये जा रहें हैं. साम्प्रदायिकता का डर दिखा लोगों को गुमराह किया जा रहा है. दिल्ली में महिलाओं को लेकर बड़ी सोच बघारने वाले मोदी के सामने जब महिला आरक्षण का प्रस्ताव एक महिला राज्यपाल द्वारा रखा गया था तब उन्होंने उसे पास करवाने के लिए प्रयास क्यों नहीं किये? बकायदा मोदी ने तो उस पर गौर तक नहीं किया. दरअसल मोदी का एकमात्र एजेंडा है प्रधानमंत्री का पद और उसके मिल जाने के बाद देश में तानाशाह बन राज्य करना जो बोले उसकी हत्या. उनके सभी समर्थकों को माया की तरह फांसी दे दी जायेगी. जो बोलेगा उसकी हत्या कर दी जायेगी. इतना खौफ की सत्ता सुख बार-बार जनता ही देगी जैसे सद्दाम को देती थी. जो सद्दाम ने किया उसी राह पर मोदी भी हैं, बस फर्क इतना है कि वह भारत में हैं? भारत को इराक ना बनने दें.
शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013
एक करोड़ बेटियों के कातिल हम भारतवासी
आज सारी दुनिया में जहां महिला अधिकारों और कन्या भ्रूण हत्या पर बहस शुरू हो रही है, वहीं दूसरी ओर महिलाओं और बच्चियों के प्रति अत्याचार कम नहीं हो रहें हैं। क्या कारण है इस सब का, आखिर कौन जिम्मेदार है इसके लिए. अल्ट्रासाउंड कराने वाले सेंटर या गर्भपात करवाने वाले डाक्टर, अगर सही मायनों में देखें तो एक माँ ही आज कातिल की भूमिका में दिख रही है. बिना माँ की सहमति के शत-प्रतिशत केसों में भ्रूण हत्या नहीं करवाई जा सकती है. आधुनिकता की कसमें खाने वाली आज की माएँ खुद एक कन्या को गर्भ में खत्म करने को तैयार रहती है, समाज में चाहे वह खुद को लड़के और लडकी में कोई अंतर ना करने वाली दिखाने की कितनी भी कोशिश करे लेकिन सच तो ये है कि वह खुद ऐसा नहीं कर पाती है.
इस देश में जहाँ नारी को नवदुर्गा और ना जाने कितने रूपों में पूजा जाता है लेकिन वास्तव में वही नारी एक बेटी को जन्म नहीं देना चाहती है ऐसा क्यों? क्या वास्तव में नारी खुद ऐसा करती है? यह एक बड़ा सवाल है? आज जब महिलाओं को काफी अधिकार मिलें हैं तब भी कन्या भ्रूण हत्या रूक क्यों नहीं रही है? दरअसल महिलाओं के लिए बने सारे क़ानून और अधिकार ना तो उसकी रक्षा कर पायें हैं और ना ही उसे समाज में समान अधिकार दें पायें हैं. एक महिला जब खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करेगी तो कैसे एक कन्या को जन्म देना मंजूर कर पायेगी. आज भी धर्म और समाज एक बेटे के बिना परिवार को अधूरा मानता है. बिना बेटे के वंश कैसे चलेगा? ये एक सवाल हर समय समाज पूछता है, अगर विज्ञान की कसौटी पर इसे कसे तो ये एक बिलकुल ही बेहूदा तथ्य है, जिस तरह से माता-पिता के डीएनए बेटे को मिलते हैं बिल्कुल वैसे ही बेटी को भी तो फिर ये अंतर क्यों? हमारा ये बेहूदा राग अलापना कहाँ तक ठीक है। अगला सवाल ये है कि अब और कितना समय लगेगा हमारी मानसिकता बदलने में?
आइये बदलें और एक बिटिया को जन्म दें उसे पालें और अपना वंश आगे ले जाएँ क्योंकि चाहे बेटा हो बेटी वह नौ माह तो पलेगा एक नारी के गर्भ में ही.
जो आकड़े उपलब्ध हैं उनके अनुसार पिछले बीस सालों में १ करोड़ लडकियों को भारत देश में पैदा होने से पहले ही मार दिया गया है? ये है मेरा भारत जो नवदुर्गा की पूजा तो करता है लेकिन.....
(सुलेखा)
लेखिका Institute of Generation Education and Empowerment से जुड़ी हैं।
जो आकड़े उपलब्ध हैं उनके अनुसार पिछले बीस सालों में १ करोड़ लडकियों को भारत देश में पैदा होने से पहले ही मार दिया गया है? ये है मेरा भारत जो नवदुर्गा की पूजा तो करता है लेकिन.....
(सुलेखा)
लेखिका Institute of Generation Education and Empowerment से जुड़ी हैं।
रविवार, 24 फ़रवरी 2013
मेरा समाज और आंतक का पोषण
हैदराबाद में हुए हालिया धमाकों ने आतंकवाद और उसके रूपों पर एक नई बहस छेड़ दी है. इन धमाकों के पीछे मास्टर माइंड कौन है? या ये धमाके किस मानसिकता का परिणाम हैं इन मुद्दों पर तो खूब धमाल किया जाता है. धर्म, मजहब और सम्प्रदाय से जोड़ने के साथ पुलिस और सरकारों को भी खूब कोसा जाता है. लेकिन हम ये भूल जाते हैं की इन अलगावादियों को पनाह और पोषण देने वाला समाज हमारा ही है. देश में कहीं भी आतंकवादी घटनाएँ होती हैं तो समाज के एक तबके का इन घटनाओं को संरक्षण होता ही है. अपने तुच्छ फायदों के लिए आंतकियों को पनाह देने वालों की फेहरिस्त कम नहीं है. एक दूसरा सवाल आतंकियों के धर्म को लेकर उठाया जाता है, शायद ही कोई धर्म यूं कटने काटने की बात करता हो. लेकिन कुछ अलगाववादी अपने फायदे और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं. चाहे वो ओवैसी हो या फिर तोगडिया. ये बिना वजूद के लोग सिर्फ लोगों को भड़का कर दंगे और आंतक भडकाना जानते हैं. अफजल को फांसी पर देश में कई संगठन बौखला गये थे लेकिन आज जब हैदराबाद जल रहा है तो कहाँ वो लोग. अफजल जैसे आंतकी के मानवाधिकार आपको दिखते हैं लेकिन धमाकों में मरने वालों के अधिकारों से आप त्क्क्लुफ़ तक नहीं रखते दिखते हैं. हिन्दू या मुसलमान आतंकी ये आंतक की परिभाषा नहीं है. क्या पाकिस्तान में आतंकवादी घटनाएँ कम होती हैं? क्या पकिस्तान या कहीं और मुसलमान आतंकवाद से नहीं मर रहा है? शायद मुसलमान पाकिस्तान या अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा असुरक्षित है. लेकिन ये भी सच है की ज्यादातर आतंकी मुसलमान के नाम से ही आतें हैं. ऐसा क्यूं है? इसके कारण जब तक धर्म की धुरी पर ढूंढें जायेंगें तब तक उत्तर नहीं मिलेगा. सच तो यह है की दुनिया की महाशक्तियां इस समस्या का हल नहीं चाहती हैं. ये आतंकवाद, दुनिया ने अपनी सरकारों की नाकामी को छुपाने का हथियार बना रखा है. आंतक के खौफ में दुनिया के कई देश हथियारों के सौदागर बने हैं और सारी दुनिया में दादागिरी दिखा रहें हैं. अफजल को फांसी पर इन देशों के मानवाधिकारी चीत्कार करते हैं लेकिन सारी दुनिया में अमेरिका की तानाशाही इन्हें नहीं दिखती है. हमारे देश आतंक का जो चेहरा अब दिख रहा है भले ही वो पाकिस्तान से आयातित मान भी लिया जाय तो उसका गोदाम तो देश में ही है और यहाँ जनता के समर्थन से ही फल फूल रहा है. यही जनता जब कुछ घट जाए तो सड़कों पर आती है लेकिन इन्हें पनाह भी देती है. ऐसा दोहरा आचरण क्यों?
(आशुतोष पाण्डेय)
(आशुतोष पाण्डेय)
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